Monday 27 October 2014

जीवन मूल्य




स्वयं को बदलें

Sat, 27 Sep 2014

आज हर आदमी का अहं (इगो) प्रबल है। इसी कारण इंसान और इंसानियत के बीच लंबी खाई बन गई है। मानवीय संवेदनाएं लुप्त होती जा रही हैं। जीवन मूल्यों का अस्तित्व अर्थहीन हो रहा है। इंसान कितना स्वार्थी हो गया है कि उसे अपना सुख, अपनी कीर्ति और अपना ही वर्चस्व चाहिए।
अहं के कारण दृष्टिकोण सीमित हो जाता है, संकरा हो जाता है। जबकि उदार दृष्टि वाले व्यक्ति में सौहार्द भावना होती है। व्यवहार का बड़ा सूत्र है-सौहार्द भावना। अगर हम व्यवहार के कौशल की खोज करें, उनके सूत्र खोजें और सौहार्द भावना के मर्म को समझ लें तो हमारा व्यवहार काफी अच्छा हो सकता है, जबकि ऐसा नहीं होता।
ऐसा इसलिए, क्योंकि हर आदमी अपनी सोच को सही मानता है। कहीं कोई अपने आग्रह को ढीला नहीं छोड़ता। औरों की बात को आदर नहीं देता। यही वजह है कि औरों के सुझाव, सीख, आज्ञा, प्रेरणा, उपदेश सभी अच्छे होते हुए भी हमारे लिए उनका कोई मूल्य नहीं। न तो अपने अस्तित्व की सीमा को छोटा कर सकते हैं और न औरों के अहसानमंद होकर जी सकते हैं। यही बड़प्पन की मनोवृत्ति अहं को झुकाती नहीं। जबकि सौहार्द भावना हमें झुकना सिखाती है।
सौहार्द भावना का तात्पर्य है-दूसरे की विशेषता देखकर प्रसन्नता जाहिर करना। दूसरे की विशेषता को प्रोत्साहन देना और दूसरे की विशेषता को पवन की तरह जनता तक पहुंचाना।
मानवता का दीप बुझ जाता है तो अंधकार फैल जाता है। तब मनुष्य को भले-बुरे, कर्तव्य-अकर्तव्य, सार-असार, पवित्रता-अपवित्रता का ज्ञान नहीं रहता। आज दुनिया त्रस्त है, परेशान है, क्योंकि वह इसी स्थिति से गुजर रही है। सच यह है कि संसार में सुख भी है और दुख भी। दोनों की अनुभूति एक-दूसरे के अस्तित्व के कारण ही होती है। दिन का महत्व इसलिए है कि रात आती है और रात का महत्व इसलिए है कि रात के बाद दिन आता है, लेकिन सच्चाई यह है कि सुख सब चाहते हैं, दुख कोई नहीं चाहता।
यही कारण है कि व्यक्ति दुख-निवारण का मार्ग खोजता है, ताकि वह सुख-चैन से रह सके। लेकिन उसकी खोज की दिशाएं गलत हैं, वह स्वयं को बदलना नहीं चाहता। उसकी चाह सदैव दूसरों को ही बदलते हुए देखने की रहती है, जबकि भीतर से आया बदलाव ही हमें समस्याओं से स्थायी समाधान दे सकता है।
ललित गर्ग
-------------------

भावों की श्रेष्ठता

Mon, 29 Sep 2014

यह वाह्य दृश्यमय जगत की रचना ईश्वर द्वारा की गई है। इस पृथ्वी पर मनुष्य समेत अनेक जीव-जंतु अपना जीवनयापन करते हैं। अन्यान्य जीवों में मनुष्य विवेकयुक्त होने के कारण सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। उसे ईश्वर ने बुद्धि के द्वारा विचार करने की शक्ति प्रदान की है। विचारों को पवित्रकर आत्मभाव में जाग्रत होने की युक्ति मात्र मनुष्य के पास है। इस भूमि पर अनेकानेक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने को पवित्र कर आत्मा का साक्षात्कार किया है। अनेक ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्ति कर उनके दर्शन किए हैं। सूक्ष्मावलोकन करने से ऐसा विदित होता है कि पूर्व में मनुष्य का हृदय अत्यंत पवित्र था और उसके विचारों में निर्मलता व्याप्त रहती थी। पवित्रता, शुद्धता व मनन की सरलता उनके लिए सर्वाधिक महत्व रखती थी।
लोग वाह्य दृष्टि से वैभवशाली नहीं थे, पर हृदय से बहुत संपन्न हुआ करते थे, उनके अंतर्जगत में भावों की उत्कृष्टता कूट-कूट कर भरी थी। सादा जीवन उच्च विचार उनका मूलमंत्र होता था। काल की गति के अनुसार विचारों का अवमूल्यन शुरू हुआ तो अंतस प्रदेश के भाव जगत में शुष्कता आने लगी। लोग विचारों की उच्चता को छोड़कर मात्र भौतिक जगत की संपन्नता को श्रेष्ठ मानकर उसकी ओर आकर्षित होते चले गये। वाह्य चमक-दमक में भावों की शुद्धता कुम्हलाने लगी। स्वयं को भौतिक रूप से संवारने की और वाह्य जगत को ही सर्वस्य समझने की इस दौड़ में लोग शामिल होते चले गये। प्रेम, सहिष्णुता, दया परोपकार के स्थान पर वाह्य जगत की संपन्नता हावी होती चली गयी। घर, नगर, गांव इससे ग्रस्त होते गए। इस दौड़ के कारण अंदर झांकना बंद हो गया। इसका परिणाम भी अब सामने आने लगा है। अब तो अनेक लोग जीवन की अमूल्यता को ही नहीं समझ पा रहे हैं और अपनी जीवन-लीला को समाप्त करने में लग गये हैं। जीवन जीने के लिए भौतिक साधनों की आवश्यकता है, पर भाव की शुद्धता और पवित्रता से मन को सींचते रहने की भी आवश्यकता है। जीवन की निरंतरता के लिए इनकी आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
[अशोक बाजपेयी]
----------------------

प्रेम की भावना

Sun, 28 Sep 2014

एक दवा ऐसी है, जिसे व्यक्ति को बाजार से नहीं खरीदना पड़ता। वह दवा प्रत्येक व्यक्ति के पास है और उसके सहारे वह हर बड़ी से बड़ी बीमारी व समस्या को दूर कर सकता है। वह दवा प्रेम है। प्रेम इंसान के अंदर की एक ऐसी भावना है, जो उस समय बढ़ती है, जब व्यक्ति किसी से गहराई से जुड़ता है। जब व्यक्ति सकारात्मक भावों के साथ इनसे प्रेम करता है, तो जिंदगी बेहद खूबसूरत हो जाती है। 'द बॉयोलॉजी ऑफ लव' पुस्तक के लेखक डॉ जेनव कहते हैं, 'मनुष्य एक संवेदनशील जीव है, इसलिए प्रेम जैसी भावना की कमी उसके विकास और जीने की क्षमता को कमजोर कर सकती है। मनोवैज्ञानिक प्रेम को मनुष्य के अंतर्मन में मौजूद सबसे मजबूत और सकारात्मक संवेदना के रूप में देखते हैं और मानते हैं। इससे शरीर में गहरे बदलाव आते हैं। जिस तरह दवा रसायनों के मिश्रण से बनती है, उसी तरह प्रेम की दवा में भी रसायनों का ही हाथ है। अमेरिका के वैज्ञानिक रॉबर्ट फ्रेयर के अनुसार प्रेम मानव शरीर में उपस्थित न्यूरो-केमिकल के कारण होता है। यह न्यूरो-केमिकल व्यक्ति को प्रेम की गहनता तक ले जाता है और व्यक्ति को उन खुशियों तक पहुंचाता है, जिन्हें वह पाना चाहता है। अक्सर व्यक्ति को बीमारी, तनाव व डिप्रेशन के समय परिवार के साथ समय बिताने, प्रकृति को निहारने, प्रेरणादायक पुस्तक पढ़ने और मधुर संगीत सुनने की सलाह दी जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक तर्क यही है कि ये सब प्रेम के रूप हैं और व्यक्ति के लिए दवा का काम करते हैं।
श्रीश्री रविशंकर प्रेम के संदर्भ में कहते हैं कि प्रेम तो ऐसी दवा है जिसकी कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। यह हमेशा हर मौके पर कारगर होती है। प्रेम की दवा को अपना साथी बनाना बहुत सरल है। इसके लिए व्यक्ति को बस अपने अंतर्मन से इस बात को स्वीकार करना है कि मुझे पूरी सृष्टि से प्रेम है। मुझे हंसते-रोते इंसानों से, फूल-पत्तों से, गुनगुनी सुबह से, सुरमयी शाम से और चिड़ियों के कोलाहल से, नदियों के राग से प्रेम है। प्रेम एक ऐसी दवा है, जो जिसके पास जितनी अधिक होती है, उसे यह उतनी अधिक स्वस्थ, सुंदर और हंसमुख बनाती है। कई बार व्यक्ति जब दवा का सेवन करता है, तो उसे कई खाद्य पदाथरें व वस्तुओं से परहेज करना पड़ता है, लेकिन प्रेम की दवा में ऐसा बिल्कुल नहीं है।